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Friday, December 22, 2023

Essay Leadership and my achievements as a principal

 

Leadership and my achievements as a principal


Leadership is the key to success in any organization, and as a principal of a senior secondary school, I have strived to exhibit exemplary leadership skills to steer my institution towards progress and achievement. With a Master's level education and experience in the education sector, I have been able to make a significant impact on the educational environment, student performance, and the growth of my school.

One of my primary responsibilities as a principal is to create and implement effective policies and procedures that foster a positive learning environment for both teachers and students. I have taken a proactive approach in this regard by regularly conducting meetings and workshops with my faculty to address their concerns and provide them with the necessary support and resources to excel in their roles. By encouraging open communication and collaboration, I have created a culture of trust and shared responsibility among the staff, resulting in a more engaged and motivated teaching force.

Furthermore, I believe in leading by example, and therefore, I always strive to maintain high standards of professionalism and integrity. I ensure that all members of the school community adhere to a code of conduct that promotes ethical behavior and respect for one another. By setting a strong moral compass, I have been able to create a harmonious and inclusive environment that fosters emotional and social growth among the students.

Equally important is my focus on academic excellence. I have implemented a comprehensive curriculum that meets the needs of a diverse student population. Through the establishment of regular assessment practices, I have been able to track students' progress and identify areas where additional support may be required. By providing ample opportunities for remediation and enrichment, I have witnessed a substantial improvement in overall student performance.

In addition, I have worked tirelessly to cultivate a strong partnership between the school and parents. I firmly believe that parental involvement plays a crucial role in a student's success. To this end, I have organized regular parent-teacher meetings, workshops, and informational sessions to provide parents with a deeper understanding of their children's educational journey. By fostering open lines of communication, I have been able to bridge the gap between school and home, resulting in increased parent engagement and support.

Moreover, I recognize the importance of professional development for both teachers and myself. I have encouraged my staff to actively participate in workshops, seminars, and conferences that focus on innovative teaching methodologies and educational advancements. By continuously improving our skills and knowledge, we have been able to adapt to the changing demands of the education landscape and provide our students with the best possible education.

In conclusion, my tenure as a principal at the Master level has been defined by exemplary leadership, a commitment to academic excellence, fostering a positive learning environment, and cultivating strong partnerships with parents. Through a holistic approach to education, I have witnessed remarkable growth and achievement among my students and staff. By embracing the complexities and challenges of leadership, I have been able to make a lasting impact on the lives of those within my school community.

Saturday, June 5, 2021

Environment essay in hindi

 पर्यावरण पर निबंध हिन्दी


पर्यावरण शब्द का निर्माण दो शब्दों परि और आवरण से मिलकर बना है, जिसमें परि का मतलब है हमारे आसपास अर्थात जो हमारे चारों ओर है, और 'आवरण' जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है। पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक कारकों की कुल इकाई है जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूप, जीवन और जीविता को तय करते हैं।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिवस पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनैतिक और सामाजिक जागृति लाने के लिए मनाया जाता है। इसकी शुरुआत 1972 में 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन से हुई। 5 जून 1973 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया।

पर्यावरण के जैविक संघटकों में सूक्ष्म जीवाणु से लेकर कीड़े-मकोड़े, सभी जीव-जंतु और पेड़-पौधों के अलावा उनसे जुड़ी सारी जैव क्रियाएं और प्रक्रियाएं भी शामिल हैं। जबकि पर्यावरण के अजैविक संघटकों में निर्जीव तत्व और उनसे जुड़ी प्रक्रियाएं आती हैं, जैसे: पर्वत, चट्टानें, नदी, हवा और जलवायु के तत्व इत्यादि।


सामान्य अर्थों में यह हमारे जीवन को प्रभावित करने वाले सभी जैविक और अजैविक तत्वों, तथ्यों, प्रक्रियाओं और घटनाओं से मिलकर बनी इकाई है। यह हमारे चारों ओर व्याप्त है और हमारे जीवन की प्रत्येक घटना इसी पर निर्भर करती और संपादित होती हैं। मनुष्यों द्वारा की जाने वाली समस्त क्रियाएं पर्यावरण को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। इस प्रकार किसी जीव और पर्यावरण के बीच का संबंध भी होता है, जो कि अन्योन्याश्रि‍त है।

मानव हस्तक्षेप के आधार पर पर्यावरण को दो भागों में बांटा जा सकता है, जिसमें पहला है प्राकृतिक या नैसर्गिक पर्यावरण और मानव निर्मित पर्यावरण। यह विभाजन प्राकृतिक प्रक्रियाओं और दशाओं में मानव हस्तक्षेप की मात्रा की अधिकता और न्यूनता के अनुसार है।


पर्यावरणीय समस्याएं जैसे प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन इत्यादि मनुष्य को अपनी जीवनशैली के बारे में पुनर्विचार के लिये प्रेरित कर रही हैं और अब पर्यावरण संरक्षण और पर्यावरण प्रबंधन की आवश्यकता महत्वपूर्ण है। आज हमें सबसे ज्यादा जरूरत है पर्यावरण संकट के मुद्दे पर आम जनता को जागरूक करने की

Monday, May 17, 2021

Mera Priya Mitra Essay in Hindi class6th


Mera Priya Mitra Essay in Hindi –



 मेरा प्रिय मित्र पर निबंध


मेरे बहुत से अच्छे मित्र हैं लेकिन सबसे अच्छा मित्र अमित है। अमित मेरे  घर के पास ही रहता है। अमित एक गरीब परिवार से है लेकिन बहुत ही होनहार एवं ईमानदार है।

वह सदा बड़ों का आदर करता है। उसकी सबसे अच्छी आदत यह है कि वह शाम को जल्दी सोता है और सुबह जल्दी उठकर हम दोनों साथ में सैर करने जाते है।

वह मुझे हमेशा नई नई कहानियां सुनाता है और मैं भी उसे हटाने के लिए चुटकुले सुनाता हूं। हमारी बचपन से ही अच्छी दोस्ती है अगर कभी मुझसे गलती भी हो जाती है तो वह मुझे माफ कर देता है।

अमित के पिताजी फल बेचते है वह कभी-कभी मेरे लिए केले और सेव भी लेकर आता है जिनको खाकर बड़ा आनंद आता है। अमित की माताजी घर पर रहकर कपड़ों की बुनाई करती है।

वह हमेशा मुस्कुराता रहता है जिसके कारण जो भी उसे देखता है वह खुश हो जाता है। जब भी मैं किसी मुसीबत में होता हूं तो वह सदा मेरे साथ खड़ा होता है और मेरा साथ निभाता है।

हम दोनों एक ही विद्यालय में पढ़ने जाते है। हम दोनों विद्यालय में जाते ही सबसे पहले गुरुजनों को प्रणाम करते हैं और फिर कक्षा में जाते है।

अमित पढ़ने में बहुत होशियार है वह हर बार कक्षा में प्रथम आता है। अमित इतना अच्छा लड़का है कि कभी-कभी हमारे विद्यालय के अध्यापक भी उसकी तारीफ करते है।

जब भी मैं निराश होता हूं तो वह मुझे हौसला देता है और कभी हारने की सलाह देता है। हम दोनों विद्यालय से आने के बाद शाम को एक साथ क्रिकेट खेलते है। अमित समय का बड़ा पाबंद है वह कभी भी समय का दुरुपयोग नहीं करता है।

 


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Raksha Bandhan essay in hindi

Essay on Raksha Bandhan in Hindi –  (150 Words) 

Class6th.

भारत में सभी त्योहार बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाए जाते हैं। रक्षाबंधन ऐसा विषेश दिन है, जो केवल भाई बहनों के लिए बना है। यूं तो भारत में भाई-बहनों के बीच प्यार और कर्तव्य की भूमिका किसी एक दिन की मोहताज नहीं है। पर रक्षाबंधन के धार्मिक व ऐतिहासिक महत्व के कारण यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है।रक्षा बंधन भाई बहन का त्योहार है और उनके प्रेम का प्रतीक है। यह हर साल सावन माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है।
इस दिन बहने अपने भाई की कलाई पर राखी बाँध कर उनकी लंबी उमर की दुआ करती हैं और भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देते हैं। सभी लोग राखी के त्योहार को बड़ी खुशी के साथ बनाते हैं। इस दिन भाई अपनी बहन को तोहफे भी देते हैं। इस दिन बाँधी जाने वाली राखी रेशम के धागे, चाँदी और सोने की होती है। 
लोग घरों के बाहर राम सीता, राधे श्याम की पर्ची भी लगाते हैं। घर में तरह तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं। इस दिन सरकार महिलाओं के लिए यातायात की सुविधा मुफ्त में उपलब्ध कराते हैं। शादीशुदा महिला अपने मायके जाकर अपने भाईयों को राखी बाँधती है। 

Thursday, November 5, 2020

Munshi Premchand -upanyas samraat essay in hindi

 

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद  पर निबंध


एक हिंदी पाठ- चन्दर उदय सिंह द्वारा

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Munshi Premchand

(जन्म- 31 जुलाई, 1880, मृत्यु- 8 अक्टूबर, 1936)


 


प्रस्तावना :     मुंशी प्रेमचंद भारत के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं जिनके युग का विस्तार सन् 1880 से 1936 तक है। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। जन्म और विवाह : प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गांव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनंदी देवी थी। प्रेमचंद का बचपन गांव में बीता था। उनके पिता, मुंशी अजायब लाल, डाकमुंशी थे और उनका वेतन लगभग पच्चीस रुपए मासिक था। उनकी मां आनंद देवी सुंदर, सुशील और सुघड़ महिला थीं।

जब प्रेमचंद पंद्रह वर्ष के थे, उनका विवाह हो गया। सन 1905 के अंतिम दिनों में आपने शिवरानी देवी से शादी कर ली। शिवरानी देवी बाल-विधवा थीं। यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् इनके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। इनके लेखन में अधिक सजगता आई। प्रेमचंद की पदोन्नति हुई तथा यह स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिए गए।

शिक्षा :    गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में ही इन्हें गांव से दूर वाराणसी पढ़ने के लिए नंगे पांव जाना पड़ता था। इसी बीच में इनके पिता का देहांत हो गया। प्रेमचंद को पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वह वकील बनना चाहते थे, मगर गरीबी ने इन्हें तोड़ दिया। प्रेमचंद ने स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहां ट्यूशन ले लिया और उसी के घर में एक कमरा लेकर रहने लगे।

इनको ट्यूशन का पांच रुपया मिलता था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, पर्सियन और इतिहास विषयों से स्नातक की उपाधि द्वितीय श्रेणी में प्राप्त की थी।

साहित्यिक जीवन : प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम 'धनपत राय' था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरंभ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवनपर्यंत नवाब के नाम से ही संबोधित करते रहे। जब सरकार ने उनका पहला कहानी-संग्रह, 'सोजे वतन' जब्त किया, तब उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा। बाद का उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित हुआ।

साहित्य की विशेषताएं : प्रेमचंद की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। 

प्रेमचंद की कृतियां भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियां हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक,  आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की, किंतु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राट की पदवी मिल गई थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, संपादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की।

जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी उस समय बंकिम बाबू थे, शरतचंद्र थे और इसके अलावा टॉलस्टॉय जैसे रुसी साहित्यकार थे। उन्होंने गोदान जैसे कालजयी उपन्यास की रचना की जो कि एक आधुनिक क्लासिक माना जाता है।

पुरस्कार : मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहां प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है। यहां उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहां उनकी एक आवक्षप्रतिमा भी है।

प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे अमृत राय ने 'कलम का सिपाही' नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेजी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियां लोकप्रिय हुई हैं।

उपसंहार :     प्रेमचंद ने अपने जीवन के कई अद्भुत कृतियां लिखी हैं। तब से लेकर आज तक हिंदी साहित्य में ना ही उनके जैसा कोई हुआ है और ना ही कोई और होगा।

अपने जीवन के अंतिम दिनों के एक वर्ष को छोड़कर उनका पूरा समय वाराणसी और लखनऊ में गुजरा, जहां उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ।


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Tuesday, August 18, 2020

Essay on Importance of Newspaper in Hindi

 

कक्षा-10 

हिंदी निबंध। 

A hindi lesson by - Chander Uday Singh



समाचार-पत्र का महत्त्व पर निबंध 

वर्तमान युग विज्ञान का युग है । विज्ञान की कृपा से आवागमन के ऐसे दुतगामी साधन उपलब्ध हो गए हैं कि समूचा देश सिकुड़कर एक बड़ा नगर वन गया है और दूरस्थ राष्ट्र हमारे पड़ोसी बन गए हैं ।

ऐसी स्थिति में अपने पडोसी राष्ट्रों की दैनिक गतिविधियों के संबंध में जानकारी प्राप्त करने की प्रबल इच्छा रहती है । ममाचार-पत्र हमारी इस इच्छा की पूर्ति में सहायक होते हैं ।  वर्तमान युग में समाचार-पत्र हमारे जीवन का एक प्रमुख अंग बन गया है ।

हमें इसकी ऐसी आदत पड़ गई है कि प्रात: उठते ही हम उसे पढ़ने के लिए बेचैन हो उठते हैं । होते ही समाचार-पत्र वितरित करनेवाला हॉकर हमारे घर इच्छित समाचार-पत्र पहुँचा देता है । समाचार-पत्र का प्रकाशन एक स्वतंत्र व्यवसाय है ।

समाचार-पत्रों से अनेक लाभ हैं । इनसे हमें प्रतिदिन देश-विदेश के सभी क्षेत्रों के समाचार घर बैठे प्राप्त हो जाते हैं । इनसे हमारे ज्ञान में वृद्धि होती है और हम उनसे बहुत कुछ सीखते हैं । संसार की ज्वलंत समस्याओं को हमारे सामने प्रस्तुत कर वे हमें उनके संबंध में विचार करने का अवसर देते हैं । व्यापारिक वस्तुओं के विज्ञापन के ये लोकप्रिय साधन हैं । यदि कोई व्यापारी अपने माल की खपत बढ़ाना चाहता है तो वह समाचार-पत्र का ही आश्रय लेता है ।

सरकार भी अपने आदेशों का प्रचार-प्रसार करने के लिए समाचार-पत्र को ही साधन वनाती है । इस प्रकार शासक और जनता के बीच निरंतर संपर्क बना रहता है । यदि देश अथवा विदेश में कोई ज्वलंत राजनीतिक समस्या उठ खड़ी होती है तो उसके संबंध में राजनेताओं तथा जनता के विचार हमें समाचार-पत्र द्वारा प्राप्त हो जाते है ।

समाचार-पत्र शासन-नीति की आलोचना कर जनता को उसके प्रति सतर्क रखते हैं । वे जनसाधारण के कष्टों और कठिनाइयों को सरकार के सामने रखकर उनके निवारण के लिए अपील करते हैं । इस प्रकार वे शासक और शासित के मध्यस्थ बनकर दोनों के बीच ठोस संबंध स्थापित करते है ।

समाचार-पत्रों से कुछ हानियाँ भी होती है । विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता अपने दल के हितार्थ समाचार-पत्रों के माध्यम से असत्य का प्रचार करते रहते हैं । इससे जनता गुमराह हो जाती है और राष्ट्रीय एकता को धक्का पहुँचता है । कभी-कभी समाचार-पत्र झूठे समाचार प्रकाशित कर शासन के विरुद्ध हलचल पैदा कर देते हैं । कभी-कभी व्यापारी उनके द्वारा अपने माल की अवांछनीय प्रशंसा कर जनता को ठग लेते हैं ।

कामोत्तेजक विज्ञापन और अश्लील चित्र छापकर अखबार जनता का चरित्र बिगाड़ देते हैं । वे भिन्न-भिन्न संप्रदायों, राजनीतिक दलों, जातियों तथा सामाजिक संस्थाओं के बीच मनोमालिन्य बढ़ाने से भी नहीं चूकते । सांप्रदायिक दंगों के भड़काने में उनका बड़ा हाथ रहता है । इन गुणों और दुर्गुणों के होते हुए भी जनतंत्रात्मक युग में समाचार-पत्र का अपना महत्त्व है ।

समाचार-पत्र स्वतंत्र देश के सजग प्रहरी होते हैं । देश की प्रत्येक ज्वलंत समस्या के प्रति स्वस्थ जनमत तैयार करना और संपूर्ण विश्व को एकता की श्रुंखला में जोड़ना उनका मुख्य ध्येय है । इस ध्येय की पूर्ति में जो समाचार-पत्र सहायक होते हैं, उन्हीं से देश का मस्तक ऊँचा होता है ।


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Friday, August 14, 2020

Vidyarthi aur vidyarthi asantosh In Hindi essay

कक्षा-10
हिंदी निबंध।
A hindi lesson by - Chander Uday Singh


विद्यार्थी और छात्र–असन्तोष पर निबंध 

– Essay On Student And Student dissatisfaction In Hindi





विद्यार्थी और छात्र–असन्तोष

प्रस्तावना–
मानव–स्वभाव में विद्रोह की भावना स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है, जो आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर ज्वालामुखी के समान फूट पड़ती है।

छात्र–
असन्तोष के कारण हमारे देश में, विशेषकर युवा–पीढ़ी में प्रबल असन्तोष की भावना विद्यमान है। छात्रों में व्याप्त असन्तोष की इस प्रबल भावना के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
(क) असुरक्षित और लक्ष्यहीन भविष्य–आज छात्रों का भविष्य सुरक्षित नहीं है। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में तेजी से होनेवाली वृद्धि से छात्र–असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक है। एक बार सन्त विनोबाजी से किसी विद्यार्थी ने अनुशासनहीनता की शिकायत की। विनोबाजी ने कहा, “हाँ, मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है कि इतनी निकम्मी शिक्षा और उस पर इतना कम असन्तोष!”

(ख) दोषपूर्ण शिक्षा–प्रणाली–हमारी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। वह न तो अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करती है और न ही छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान देती है। परिणामतः छात्रों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। छात्रों का उद्देश्य केवल परीक्षा उत्तीर्ण करके डिग्री प्राप्त करना ही रह गया है। ऐसी शिक्षा–व्यवस्था के परिणामस्वरूप असन्तोष बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(ग) कक्षा में छात्रों की अधिक संख्या–विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, जो कि इस सीमा तक पहुंच गई है कि कॉलेजों के पास कक्षाओं तक के लिए पर्याप्त स्थान नहीं रह गए हैं। अन्य साधनों; यथा–प्रयोगशाला, पुस्तकालयों आदि का तो कहना ही क्या। जब कक्षा में छात्र अधिक संख्या में रहेंगे और अध्यापक उन पर उचित रूप से ध्यान नहीं देंगे तो उनमें असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(घ) पाठ्य–सहगामी क्रियाओं का अभाव–पाठ्य–सहगामी क्रियाएँ छात्रों को आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करती हैं। इन कार्यों के अभाव में छात्र मनोरंजन के अप्रचलित और अनुचित साधनों को अपनाते हैं; अत: छात्र–असन्तोष का एक कारण पाठ्य–सहगामी क्रियाओं का अभाव भी है।

(ङ) घर और विद्यालय का दूषित वातावरण–कुछ परिवारों में माता–पिता बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देते और वे उन्हें समुचित स्नेह से वंचित भी रखते हैं, आजकल विद्यालयों में भी उनकी शिक्षा–दीक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। दूषित पारिवारिक और विद्यालयीय वातावरण में बच्चे दिग्भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे बच्चों में असन्तोष की भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

(च) दोषपूर्ण परीक्षा–प्रणाली–हमारी परीक्षा–प्रणाली छात्र के वास्तविक ज्ञान का मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं है। कुछ छात्र तो रटकर उत्तीर्ण हो जाते हैं और कुछ को उत्तीर्ण करा दिया जाता है। इससे छात्रों में असन्तोष उत्पन्न होता है।

(छ) छात्र गुट–राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण कुछ छात्रों ने अपने गुट बना लिए हैं। वे अपनी बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं को फलीभूत न होते देखकर अपने मन के आक्रोश और विद्रोह को तोड़–फोड़, चोरी, लूटमार आदि करके शान्त करते हैं।

(ज) गिरता हुआ सामाजिक स्तर–आज समाज में मानव–मूल्यों का ह्रास हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति मानव–आदर्शों को हेय समझता है। उनमें भौतिक संसाधन जुटाने की होड़ मची है। नैतिकता और आध्यात्मिकता से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति में छात्रों में असन्तोष का पनपना स्वाभाविक है।

(झ) आर्थिक समस्याएँ–आज स्थिति यह है कि अधिकांश अभिभावकों के पास छात्रों की शिक्षा आदि पर व्यय करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। बढ़ती हुई महँगाई के कारण अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति भी उदासीन होते जा रहे हैं, परिणामस्वरूप छात्रों में असन्तोष बढ़ रहा है।

(अ) निर्देशन का अभाव–छात्रों को कुमार्ग पर जाने से रोकने के लिए समुचित निर्देशन का अभाव भी हमारे देश में व्याप्त छात्र–असन्तोष का प्रमुख कारण है। यदि छात्र कोई अनुचित कार्य करते हैं तो कहीं–कहीं उन्हें इसके लिए और बढ़ावा दिया जाता है। इस प्रकार उचित मार्गदर्शन के अभाव में वे पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

छात्र–असन्तोष के निराकरण के उपाय–छात्र–असन्तोष की समस्या के निदान के लिए निम्नलिखित मुख्य सुझाव दिए जा सकते हैं-

(क) शिक्षा–व्यवस्था में सुधार हमारी शिक्षा–व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जो छात्रों को जीवन के लक्ष्यों को समझने और आदर्शों को पहचानने की प्रेरणा दे सके। रटकर मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने को ही छात्र अपना वास्तविक ध्येय न समझें।

(ख) सीमित प्रवेश–विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निश्चित की जानी चाहिए, जिससे अध्यापक प्रत्येक छात्र के ऊपर अधिक–से–अधिक ध्यान दे सके; क्योंकि अध्यापक ही छात्रों को जीवन के सही मार्ग की ओर अग्रसर कर सकता है। ऐसा होने से छात्र–असन्तोष स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।

(ग)आर्थिक समस्याओं का निदान–छात्रों की आर्थिक समस्याओं को हल करने के लिए निम्नलिखित मुख्य उपाय करने चाहिए-

निर्धन छात्रों को ज्ञानार्जन के साथ–साथ धनार्जन के अवसर भी दिए जाएँ।
शिक्षण संस्थाएँ छात्रों के वित्तीय भार को कम करने में उनकी सहायता करें।
छात्रों को रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए।
छात्रों को व्यावसायिक मार्गदर्शन प्रदान किया जाए।
शिक्षण संस्थाओं को सामाजिक केन्द्र बनाया जाए।
(घ) रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य–छात्र–असन्तोष को दूर करने के लिए आवश्यक है कि छात्रों को उनकी रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य प्रदान किए जाएँ। किशोरावस्था में छात्रों को समय–समय पर समाज–सेवा हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सामाजिक कार्यों के माध्यम से उन्हें अवकाश का सदुपयोग करना सिखाया जाए तथा उनकी अवस्था के अनुसार उन्हें रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जाना चाहिए।

(ङ) छात्रों में जीवन–मूल्यों की पुनर्स्थापना–छात्र–असन्तोष दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों में सार्वभौम जीवन–मूल्यों की पुनर्स्थापना की जाए।

(च) सामाजिक स्थिति में सुधार–युवा–असन्तोष की समाप्ति के लिए सामाजिक दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आवश्यक हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने भौतिक स्तर को ऊँचा उठाने की आकांक्षा छोड़कर अपने बच्चों की शिक्षा आदि पर अधिक ध्यान दें तथा समाज में पनप रही कुरीतियों एवं भ्रष्टाचार आदि को मिलकर समाप्त करें।

यदि पूरी निष्ठा तथा विश्वास के साथ इन सुझावों को अपनाया जाएगा तो राष्ट्र–निर्माण की दिशा में युवा–शक्ति का सदुपयोग किया जा सकेगा।

उपसंहार–
इस प्रकार हम देखते हैं कि छात्र–असन्तोष के लिए सम्पूर्ण रूप से छात्रों को ही उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। युवा समुदाय में इस असन्तोष को उत्पन्न करने के लिए भारतीय शिक्षा–व्यवस्था की विसंगतियाँ (अव्यवस्था) अधिक उत्तरदायी हैं; फिर भी शालीनता के साथ अपने असन्तोष को व्यक्त करने में ही सज्जनों की पहचान होती है। तोड़–फोड़ और विध्वंसकारी प्रवृत्ति किसी के लिए भी कल्याणकारी नहीं होती।

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Monday, August 10, 2020

Shiksha Mein Khelkood Ka Sthaan Nibandh

कक्षा-10 

हिंदी निबंध। 

A hindi lesson by - Chander Uday Singh


शिक्षा में खेलकूद का स्थान

 

जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व
स्वास्थ्य जीवन की आधारशिला है। स्वस्थ मनुष्य ही अपने जीवन सम्बन्धी कार्यों को भलीभाँति पूर्ण कर सकता है। हमारे देश में धर्म का साधन शरीर को ही माना गया है। अतः कहा गया है

– शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद् अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है।

इसी प्रकार अनेक लोकोक्तियाँ भी स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रचलित हो गई हैं; जैसे–’पहला सुख नीरोगी काया’, ‘एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत है’, ‘जान है तो जहान हैआदि। इन सभी लोकोक्तियों का अभिप्राय यही है कि मानव को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। भारतेन्दुजी ने कहा था

दूध पियो कसरत करो, नित्य जपो हरि नाम।
हिम्मत से कारज करो, पूरेंगे सब राम॥

यह स्वास्थ्य हमें व्यायाम अथवा खेलकूद से प्राप्त होता है।

शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षा और क्रीडा का अनिवार्य सम्बन्ध है। शिक्षा यदि मनुष्य का सर्वांगीण विकास करती है तो उस विकास का पहला अंग हैशारीरिक विकास। शारीरिक विकास व्यायाम और खेलकूद के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए खेलकूद या क्रीडा को अनिवार्य बनाए बिना शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पन्न हो पाना सम्भव नहीं है।

अन्य मानसिक, नैतिक या आध्यात्मिक विकास भी परोक्ष रूप से क्रीडा और व्यायाम के साथ ही जुड़े हैं। यही कारण है कि प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकीय शिक्षा के साथसाथ खेलकूद और व्यायाम की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जाती है।

विद्यालयों में व्यायाम शिक्षक, स्काउट मास्टर, एन०डी०एस०आई० आदि शिक्षकों की नियुक्ति इसीलिए की जाती है कि प्रत्येक बालक उनके निरीक्षण में अपनी रुचि के अनुसार खेलकूद में भाग ले सके और अपने स्वास्थ्य को सबल एवं पुष्ट बना सके।

शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्वसंकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना और मानसिक विकास करना ही समझा जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य केवल मानसिक विकास से ही नहीं है, वरन् शारीरिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास से है।

सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक विकास आवश्यक है और शारीरिक विकास के लिए खेलकूद और व्यायाम का विशेष महत्त्व है। शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी खेलकूद की परम उपयोगिता है, जिसे निम्नलिखित रूपों में जाना जा सकता है-

() शारीरिक विकासशारीरिक विकास तो शिक्षा का मुख्य एवं प्रथम सोपान है, जो खेलकूद और व्यायाम के बिना कदापि सम्भव नहीं है। प्राय: बालक की पूर्ण शैशवावस्था भी खेलकूद में ही व्यतीत होती है। खेलकूद से शरीर के विभिन्न अंगों में एक सन्तुलन स्थापित होता है, शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न होती है, रक्तसंचार ठीक प्रकार से होता है और प्रत्येक अंग पुष्ट होता है। स्वस्थ बालक पुस्तकीय ज्ञान को ग्रहण करने की अधिक क्षमता रखता है; अतः पुस्तकीय शिक्षा को सुगम बनाने के लिए भी खेलकूद और व्यायाम की नितान्त आवश्यकता है।

() मानसिक विकासमानसिक विकास की दृष्टि से भी खेलकूद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार होता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रचलित है कितन स्वस्थ तो मन स्वस्थ’ (Healthy mind in a healthy body); अर्थात् स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।

शरीर से दुर्बल व्यक्ति विभिन्न रोगों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त हो मानसिक रूप से कमजोर तथा चिड़चिड़ा बन जाता है। वह जो कुछ पढ़तालिखता है, उसे शीघ्र ही भूल जाता है; अत: वह शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। खेलकूद से शारीरिक शक्ति में तो वृद्धि होती ही है, साथसाथ मन में प्रफुल्लता, सरसता और उत्साह भी बना रहता है।

() नैतिक विकासबालक के नैतिक विकास में भी खेलकूद का बहुत बड़ा योगदान है। खेलकूद से शारीरिक एवं मानसिक सहनशक्ति, धैर्य और साहस तथा सामूहिक भ्रातृभाव एवं सद्भाव की भावना विकसित होती है। बालक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं को खेलभावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा शिक्षाप्राप्ति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को हँसतेहँसते पार कर सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं।

() आध्यात्मिक विकासखेलकूद आध्यात्मिक विकास में भी परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक जीवननिर्वाह के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे सब खिलाड़ी के अन्दर विद्यमान रहते हैं। योगी व्यक्ति सुखदुःख, हानिलाभ अथवा जयपराजय को समान भाव से ही अनुभूत करता है।

खेल के मैदान में ही खिलाड़ी इस समभाव को विकसित करने की दिशा में कुछकुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। वे खेल को अपना कर्त्तव्य मानकर खेलते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक विकास में भी खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

() शिक्षाप्राप्ति में रुचिशिक्षा में खेलकूद का अन्य रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने कार्य और खेल में समन्वय स्थापित किया है। बालकों को शिक्षित करने का कार्य यदि खेलपद्धति के आधार पर किया जाता है तो बालक उसमें अधिक रुचि लेते हैं और ध्यान लगाते हैं; अत: खेल के द्वारा दी गई शिक्षा सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण होती है।

इसी मान्यता के आधार पर ही किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, प्रोजेक्ट आदि आधुनिक शिक्षणपद्धतियाँ विकसित हुई हैं। इसेखेल पद्धति द्वारा शिक्षा’ (Education by play way) कहा जाता है; अत: यह स्पष्ट है कि व्यायाम और खेलकूद के बिना शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करना असम्भव है।

उपसंहार
व्यायाम और खेलकूद से शरीर में शक्ति का संचार होता है, जीवन में ताजगी और स्फूर्ति मिलती है। आधुनिक शिक्षाजगत् में खेल के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया है। छोटेछोटे बच्चों के स्कूलों में भी खेलकूद की समुचित व्यवस्था की गई है। हमारी सरकार ने इस कार्य के लिए अलग सेखेल मन्त्रालय भी बनाया है।

फिर भी जैसी खेलकूद और व्यायाम की व्यवस्था माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में होनी चाहिए, वैसी अभी नहीं है। इस स्थिति में परिवर्तन आवश्यक है। यदि भविष्य में सुयोग्य नागरिक एवं सर्वांगीण विकासयुक्त शिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना है तो शिक्षा में खेलकूद की उपेक्षा करके उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना होगा।


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