Friday, August 14, 2020

Vidyarthi aur vidyarthi asantosh In Hindi essay

कक्षा-10
हिंदी निबंध।
A hindi lesson by - Chander Uday Singh


विद्यार्थी और छात्र–असन्तोष पर निबंध 

– Essay On Student And Student dissatisfaction In Hindi





विद्यार्थी और छात्र–असन्तोष

प्रस्तावना–
मानव–स्वभाव में विद्रोह की भावना स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहती है, जो आशाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति न होने पर ज्वालामुखी के समान फूट पड़ती है।

छात्र–
असन्तोष के कारण हमारे देश में, विशेषकर युवा–पीढ़ी में प्रबल असन्तोष की भावना विद्यमान है। छात्रों में व्याप्त असन्तोष की इस प्रबल भावना के लिए उत्तरदायी प्रमुख कारण इस प्रकार हैं-
(क) असुरक्षित और लक्ष्यहीन भविष्य–आज छात्रों का भविष्य सुरक्षित नहीं है। शिक्षित बेरोजगारों की संख्या में तेजी से होनेवाली वृद्धि से छात्र–असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक है। एक बार सन्त विनोबाजी से किसी विद्यार्थी ने अनुशासनहीनता की शिकायत की। विनोबाजी ने कहा, “हाँ, मुझे भी बड़ा आश्चर्य होता है कि इतनी निकम्मी शिक्षा और उस पर इतना कम असन्तोष!”

(ख) दोषपूर्ण शिक्षा–प्रणाली–हमारी शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है। वह न तो अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करती है और न ही छात्रों को व्यावहारिक ज्ञान देती है। परिणामतः छात्रों का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। छात्रों का उद्देश्य केवल परीक्षा उत्तीर्ण करके डिग्री प्राप्त करना ही रह गया है। ऐसी शिक्षा–व्यवस्था के परिणामस्वरूप असन्तोष बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(ग) कक्षा में छात्रों की अधिक संख्या–विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है, जो कि इस सीमा तक पहुंच गई है कि कॉलेजों के पास कक्षाओं तक के लिए पर्याप्त स्थान नहीं रह गए हैं। अन्य साधनों; यथा–प्रयोगशाला, पुस्तकालयों आदि का तो कहना ही क्या। जब कक्षा में छात्र अधिक संख्या में रहेंगे और अध्यापक उन पर उचित रूप से ध्यान नहीं देंगे तो उनमें असन्तोष का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

(घ) पाठ्य–सहगामी क्रियाओं का अभाव–पाठ्य–सहगामी क्रियाएँ छात्रों को आत्माभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करती हैं। इन कार्यों के अभाव में छात्र मनोरंजन के अप्रचलित और अनुचित साधनों को अपनाते हैं; अत: छात्र–असन्तोष का एक कारण पाठ्य–सहगामी क्रियाओं का अभाव भी है।

(ङ) घर और विद्यालय का दूषित वातावरण–कुछ परिवारों में माता–पिता बच्चों पर कोई ध्यान नहीं देते और वे उन्हें समुचित स्नेह से वंचित भी रखते हैं, आजकल विद्यालयों में भी उनकी शिक्षा–दीक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। दूषित पारिवारिक और विद्यालयीय वातावरण में बच्चे दिग्भ्रमित हो जाते हैं। ऐसे बच्चों में असन्तोष की भावना का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

(च) दोषपूर्ण परीक्षा–प्रणाली–हमारी परीक्षा–प्रणाली छात्र के वास्तविक ज्ञान का मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं है। कुछ छात्र तो रटकर उत्तीर्ण हो जाते हैं और कुछ को उत्तीर्ण करा दिया जाता है। इससे छात्रों में असन्तोष उत्पन्न होता है।

(छ) छात्र गुट–राजनैतिक भ्रष्टाचार के कारण कुछ छात्रों ने अपने गुट बना लिए हैं। वे अपनी बढ़ती महत्त्वाकांक्षाओं को फलीभूत न होते देखकर अपने मन के आक्रोश और विद्रोह को तोड़–फोड़, चोरी, लूटमार आदि करके शान्त करते हैं।

(ज) गिरता हुआ सामाजिक स्तर–आज समाज में मानव–मूल्यों का ह्रास हो रहा है। प्रत्येक व्यक्ति मानव–आदर्शों को हेय समझता है। उनमें भौतिक संसाधन जुटाने की होड़ मची है। नैतिकता और आध्यात्मिकता से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति में छात्रों में असन्तोष का पनपना स्वाभाविक है।

(झ) आर्थिक समस्याएँ–आज स्थिति यह है कि अधिकांश अभिभावकों के पास छात्रों की शिक्षा आदि पर व्यय करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। बढ़ती हुई महँगाई के कारण अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति भी उदासीन होते जा रहे हैं, परिणामस्वरूप छात्रों में असन्तोष बढ़ रहा है।

(अ) निर्देशन का अभाव–छात्रों को कुमार्ग पर जाने से रोकने के लिए समुचित निर्देशन का अभाव भी हमारे देश में व्याप्त छात्र–असन्तोष का प्रमुख कारण है। यदि छात्र कोई अनुचित कार्य करते हैं तो कहीं–कहीं उन्हें इसके लिए और बढ़ावा दिया जाता है। इस प्रकार उचित मार्गदर्शन के अभाव में वे पथभ्रष्ट हो जाते हैं।

छात्र–असन्तोष के निराकरण के उपाय–छात्र–असन्तोष की समस्या के निदान के लिए निम्नलिखित मुख्य सुझाव दिए जा सकते हैं-

(क) शिक्षा–व्यवस्था में सुधार हमारी शिक्षा–व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जो छात्रों को जीवन के लक्ष्यों को समझने और आदर्शों को पहचानने की प्रेरणा दे सके। रटकर मात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने को ही छात्र अपना वास्तविक ध्येय न समझें।

(ख) सीमित प्रवेश–विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या निश्चित की जानी चाहिए, जिससे अध्यापक प्रत्येक छात्र के ऊपर अधिक–से–अधिक ध्यान दे सके; क्योंकि अध्यापक ही छात्रों को जीवन के सही मार्ग की ओर अग्रसर कर सकता है। ऐसा होने से छात्र–असन्तोष स्वत: ही समाप्त हो जाएगा।

(ग)आर्थिक समस्याओं का निदान–छात्रों की आर्थिक समस्याओं को हल करने के लिए निम्नलिखित मुख्य उपाय करने चाहिए-

निर्धन छात्रों को ज्ञानार्जन के साथ–साथ धनार्जन के अवसर भी दिए जाएँ।
शिक्षण संस्थाएँ छात्रों के वित्तीय भार को कम करने में उनकी सहायता करें।
छात्रों को रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए।
छात्रों को व्यावसायिक मार्गदर्शन प्रदान किया जाए।
शिक्षण संस्थाओं को सामाजिक केन्द्र बनाया जाए।
(घ) रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य–छात्र–असन्तोष को दूर करने के लिए आवश्यक है कि छात्रों को उनकी रुचि और आवश्यकतानुसार कार्य प्रदान किए जाएँ। किशोरावस्था में छात्रों को समय–समय पर समाज–सेवा हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सामाजिक कार्यों के माध्यम से उन्हें अवकाश का सदुपयोग करना सिखाया जाए तथा उनकी अवस्था के अनुसार उन्हें रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जाना चाहिए।

(ङ) छात्रों में जीवन–मूल्यों की पुनर्स्थापना–छात्र–असन्तोष दूर करने के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों में सार्वभौम जीवन–मूल्यों की पुनर्स्थापना की जाए।

(च) सामाजिक स्थिति में सुधार–युवा–असन्तोष की समाप्ति के लिए सामाजिक दृष्टिकोण में भी परिवर्तन आवश्यक हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने भौतिक स्तर को ऊँचा उठाने की आकांक्षा छोड़कर अपने बच्चों की शिक्षा आदि पर अधिक ध्यान दें तथा समाज में पनप रही कुरीतियों एवं भ्रष्टाचार आदि को मिलकर समाप्त करें।

यदि पूरी निष्ठा तथा विश्वास के साथ इन सुझावों को अपनाया जाएगा तो राष्ट्र–निर्माण की दिशा में युवा–शक्ति का सदुपयोग किया जा सकेगा।

उपसंहार–
इस प्रकार हम देखते हैं कि छात्र–असन्तोष के लिए सम्पूर्ण रूप से छात्रों को ही उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। युवा समुदाय में इस असन्तोष को उत्पन्न करने के लिए भारतीय शिक्षा–व्यवस्था की विसंगतियाँ (अव्यवस्था) अधिक उत्तरदायी हैं; फिर भी शालीनता के साथ अपने असन्तोष को व्यक्त करने में ही सज्जनों की पहचान होती है। तोड़–फोड़ और विध्वंसकारी प्रवृत्ति किसी के लिए भी कल्याणकारी नहीं होती।

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Monday, August 10, 2020

Shiksha Mein Khelkood Ka Sthaan Nibandh

कक्षा-10 

हिंदी निबंध। 

A hindi lesson by - Chander Uday Singh


शिक्षा में खेलकूद का स्थान

 

जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व
स्वास्थ्य जीवन की आधारशिला है। स्वस्थ मनुष्य ही अपने जीवन सम्बन्धी कार्यों को भलीभाँति पूर्ण कर सकता है। हमारे देश में धर्म का साधन शरीर को ही माना गया है। अतः कहा गया है

– शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद् अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है।

इसी प्रकार अनेक लोकोक्तियाँ भी स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रचलित हो गई हैं; जैसे–’पहला सुख नीरोगी काया’, ‘एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत है’, ‘जान है तो जहान हैआदि। इन सभी लोकोक्तियों का अभिप्राय यही है कि मानव को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। भारतेन्दुजी ने कहा था

दूध पियो कसरत करो, नित्य जपो हरि नाम।
हिम्मत से कारज करो, पूरेंगे सब राम॥

यह स्वास्थ्य हमें व्यायाम अथवा खेलकूद से प्राप्त होता है।

शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षा और क्रीडा का अनिवार्य सम्बन्ध है। शिक्षा यदि मनुष्य का सर्वांगीण विकास करती है तो उस विकास का पहला अंग हैशारीरिक विकास। शारीरिक विकास व्यायाम और खेलकूद के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए खेलकूद या क्रीडा को अनिवार्य बनाए बिना शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पन्न हो पाना सम्भव नहीं है।

अन्य मानसिक, नैतिक या आध्यात्मिक विकास भी परोक्ष रूप से क्रीडा और व्यायाम के साथ ही जुड़े हैं। यही कारण है कि प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकीय शिक्षा के साथसाथ खेलकूद और व्यायाम की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जाती है।

विद्यालयों में व्यायाम शिक्षक, स्काउट मास्टर, एन०डी०एस०आई० आदि शिक्षकों की नियुक्ति इसीलिए की जाती है कि प्रत्येक बालक उनके निरीक्षण में अपनी रुचि के अनुसार खेलकूद में भाग ले सके और अपने स्वास्थ्य को सबल एवं पुष्ट बना सके।

शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्वसंकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना और मानसिक विकास करना ही समझा जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य केवल मानसिक विकास से ही नहीं है, वरन् शारीरिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास से है।

सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक विकास आवश्यक है और शारीरिक विकास के लिए खेलकूद और व्यायाम का विशेष महत्त्व है। शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी खेलकूद की परम उपयोगिता है, जिसे निम्नलिखित रूपों में जाना जा सकता है-

() शारीरिक विकासशारीरिक विकास तो शिक्षा का मुख्य एवं प्रथम सोपान है, जो खेलकूद और व्यायाम के बिना कदापि सम्भव नहीं है। प्राय: बालक की पूर्ण शैशवावस्था भी खेलकूद में ही व्यतीत होती है। खेलकूद से शरीर के विभिन्न अंगों में एक सन्तुलन स्थापित होता है, शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न होती है, रक्तसंचार ठीक प्रकार से होता है और प्रत्येक अंग पुष्ट होता है। स्वस्थ बालक पुस्तकीय ज्ञान को ग्रहण करने की अधिक क्षमता रखता है; अतः पुस्तकीय शिक्षा को सुगम बनाने के लिए भी खेलकूद और व्यायाम की नितान्त आवश्यकता है।

() मानसिक विकासमानसिक विकास की दृष्टि से भी खेलकूद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार होता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रचलित है कितन स्वस्थ तो मन स्वस्थ’ (Healthy mind in a healthy body); अर्थात् स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।

शरीर से दुर्बल व्यक्ति विभिन्न रोगों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त हो मानसिक रूप से कमजोर तथा चिड़चिड़ा बन जाता है। वह जो कुछ पढ़तालिखता है, उसे शीघ्र ही भूल जाता है; अत: वह शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। खेलकूद से शारीरिक शक्ति में तो वृद्धि होती ही है, साथसाथ मन में प्रफुल्लता, सरसता और उत्साह भी बना रहता है।

() नैतिक विकासबालक के नैतिक विकास में भी खेलकूद का बहुत बड़ा योगदान है। खेलकूद से शारीरिक एवं मानसिक सहनशक्ति, धैर्य और साहस तथा सामूहिक भ्रातृभाव एवं सद्भाव की भावना विकसित होती है। बालक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं को खेलभावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा शिक्षाप्राप्ति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को हँसतेहँसते पार कर सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं।

() आध्यात्मिक विकासखेलकूद आध्यात्मिक विकास में भी परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक जीवननिर्वाह के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे सब खिलाड़ी के अन्दर विद्यमान रहते हैं। योगी व्यक्ति सुखदुःख, हानिलाभ अथवा जयपराजय को समान भाव से ही अनुभूत करता है।

खेल के मैदान में ही खिलाड़ी इस समभाव को विकसित करने की दिशा में कुछकुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। वे खेल को अपना कर्त्तव्य मानकर खेलते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक विकास में भी खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

() शिक्षाप्राप्ति में रुचिशिक्षा में खेलकूद का अन्य रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने कार्य और खेल में समन्वय स्थापित किया है। बालकों को शिक्षित करने का कार्य यदि खेलपद्धति के आधार पर किया जाता है तो बालक उसमें अधिक रुचि लेते हैं और ध्यान लगाते हैं; अत: खेल के द्वारा दी गई शिक्षा सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण होती है।

इसी मान्यता के आधार पर ही किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, प्रोजेक्ट आदि आधुनिक शिक्षणपद्धतियाँ विकसित हुई हैं। इसेखेल पद्धति द्वारा शिक्षा’ (Education by play way) कहा जाता है; अत: यह स्पष्ट है कि व्यायाम और खेलकूद के बिना शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करना असम्भव है।

उपसंहार
व्यायाम और खेलकूद से शरीर में शक्ति का संचार होता है, जीवन में ताजगी और स्फूर्ति मिलती है। आधुनिक शिक्षाजगत् में खेल के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया है। छोटेछोटे बच्चों के स्कूलों में भी खेलकूद की समुचित व्यवस्था की गई है। हमारी सरकार ने इस कार्य के लिए अलग सेखेल मन्त्रालय भी बनाया है।

फिर भी जैसी खेलकूद और व्यायाम की व्यवस्था माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में होनी चाहिए, वैसी अभी नहीं है। इस स्थिति में परिवर्तन आवश्यक है। यदि भविष्य में सुयोग्य नागरिक एवं सर्वांगीण विकासयुक्त शिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना है तो शिक्षा में खेलकूद की उपेक्षा करके उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना होगा।


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