A Blog by CHANDER UDAY SINGH FOR JKBOARD/ CBSE HINDI, English STUDY MATERIAL
Friday, August 14, 2020
Vidyarthi aur vidyarthi asantosh In Hindi essay
Monday, August 10, 2020
Shiksha Mein Khelkood Ka Sthaan Nibandh
कक्षा-10
हिंदी निबंध।
A hindi lesson by - Chander Uday Singh
शिक्षा में खेलकूद का स्थान
जीवन में स्वास्थ्य का महत्त्व–
स्वास्थ्य जीवन की आधारशिला है। स्वस्थ मनुष्य ही अपने जीवन सम्बन्धी कार्यों को भली–भाँति पूर्ण कर सकता है। हमारे देश में धर्म का साधन शरीर को ही माना गया है। अतः कहा गया है
– शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद् अर्थ : शरीर ही सभी धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। अर्थात : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना जरूरी है।
इसी प्रकार अनेक लोकोक्तियाँ भी स्वास्थ्य के सम्बन्ध में प्रचलित हो गई हैं; जैसे–’पहला सुख नीरोगी काया’, ‘एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत है’, ‘जान है तो जहान है’ आदि। इन सभी लोकोक्तियों का अभिप्राय यही है कि मानव को सबसे पहले अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए। भारतेन्दुजी ने कहा था
दूध पियो कसरत करो, नित्य जपो हरि नाम।
हिम्मत से कारज करो, पूरेंगे सब राम॥
यह स्वास्थ्य हमें व्यायाम अथवा खेल–कूद से प्राप्त होता है।
शिक्षा और क्रीडा का सम्बन्ध–
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि शिक्षा और क्रीडा का अनिवार्य सम्बन्ध है। शिक्षा यदि मनुष्य का सर्वांगीण विकास करती है तो उस विकास का पहला अंग है–शारीरिक विकास। शारीरिक विकास व्यायाम और खेल–कूद के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए खेल–कूद या क्रीडा को अनिवार्य बनाए बिना शिक्षा की प्रक्रिया का सम्पन्न हो पाना सम्भव नहीं है।
अन्य मानसिक, नैतिक या आध्यात्मिक विकास भी परोक्ष रूप से क्रीडा और व्यायाम के साथ ही जुड़े हैं। यही कारण है कि प्रत्येक विद्यालय में पुस्तकीय शिक्षा के साथ–साथ खेल–कूद और व्यायाम की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जाती है।
विद्यालयों में व्यायाम शिक्षक, स्काउट मास्टर, एन०डी०एस०आई० आदि शिक्षकों की नियुक्ति इसीलिए की जाती है कि प्रत्येक बालक उनके निरीक्षण में अपनी रुचि के अनुसार खेल–कूद में भाग ले सके और अपने स्वास्थ्य को सबल एवं पुष्ट बना सके।
शिक्षा में क्रीडा एवं व्यायाम का महत्त्व–संकुचित अर्थ में शिक्षा का तात्पर्य पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना और मानसिक विकास करना ही समझा जाता है, लेकिन व्यापक अर्थ में शिक्षा से तात्पर्य केवल मानसिक विकास से ही नहीं है, वरन् शारीरिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास अर्थात् सर्वांगीण विकास से है।
सर्वांगीण विकास के लिए शारीरिक विकास आवश्यक है और शारीरिक विकास के लिए खेल–कूद और व्यायाम का विशेष महत्त्व है। शिक्षा के अन्य क्षेत्रों में भी खेल–कूद की परम उपयोगिता है, जिसे निम्नलिखित रूपों में जाना जा सकता है-
(क) शारीरिक विकास–शारीरिक विकास तो शिक्षा का मुख्य एवं प्रथम सोपान है, जो खेल–कूद और व्यायाम के बिना कदापि सम्भव नहीं है। प्राय: बालक की पूर्ण शैशवावस्था भी खेल–कूद में ही व्यतीत होती है। खेल–कूद से शरीर के विभिन्न अंगों में एक सन्तुलन स्थापित होता है, शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न होती है, रक्त–संचार ठीक प्रकार से होता है और प्रत्येक अंग पुष्ट होता है। स्वस्थ बालक पुस्तकीय ज्ञान को ग्रहण करने की अधिक क्षमता रखता है; अतः पुस्तकीय शिक्षा को सुगम बनाने के लिए भी खेल–कूद और व्यायाम की नितान्त आवश्यकता है।
(ख) मानसिक विकास–मानसिक विकास की दृष्टि से भी खेल–कूद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। स्वस्थ शरीर ही स्वस्थ मन का आधार होता है। इस सम्बन्ध में एक कहावत भी प्रचलित है कि ‘तन स्वस्थ तो मन स्वस्थ’ (Healthy mind in a
healthy body); अर्थात् स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।
शरीर से दुर्बल व्यक्ति विभिन्न रोगों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त हो मानसिक रूप से कमजोर तथा चिड़चिड़ा बन जाता है। वह जो कुछ पढ़ता–लिखता है, उसे शीघ्र ही भूल जाता है; अत: वह शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। खेल–कूद से शारीरिक शक्ति में तो वृद्धि होती ही है, साथ–साथ मन में प्रफुल्लता, सरसता और उत्साह भी बना रहता है।
(ग) नैतिक विकास–बालक के नैतिक विकास में भी खेल–कूद का बहुत बड़ा योगदान है। खेल–कूद से शारीरिक एवं मानसिक सहन–शक्ति, धैर्य और साहस तथा सामूहिक भ्रातृभाव एवं सद्भाव की भावना विकसित होती है। बालक जीवन में घटित होनेवाली घटनाओं को खेल–भावना से ग्रहण करने के अभ्यस्त हो जाते हैं तथा शिक्षा–प्राप्ति के मार्ग में आनेवाली बाधाओं को हँसते–हँसते पार कर सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं।
(घ) आध्यात्मिक विकास–खेल–कूद आध्यात्मिक विकास में भी परोक्ष रूप से सहयोग प्रदान करते हैं। आध्यात्मिक जीवन–निर्वाह के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे सब खिलाड़ी के अन्दर विद्यमान रहते हैं। योगी व्यक्ति सुख–दुःख, हानि–लाभ अथवा जय–पराजय को समान भाव से ही अनुभूत करता है।
खेल के मैदान में ही खिलाड़ी इस समभाव को विकसित करने की दिशा में कुछ–न–कुछ सफलता अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। वे खेल को अपना कर्त्तव्य मानकर खेलते हैं। इस प्रकार आध्यात्मिक विकास में भी खेल का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
(ङ) शिक्षा–प्राप्ति में रुचि–शिक्षा में खेल–कूद का अन्य रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने कार्य और खेल में समन्वय स्थापित किया है। बालकों को शिक्षित करने का कार्य यदि खेल–पद्धति के आधार पर किया जाता है तो बालक उसमें अधिक रुचि लेते हैं और ध्यान लगाते हैं; अत: खेल के द्वारा दी गई शिक्षा सरल, रोचक और प्रभावपूर्ण होती है।
इसी मान्यता के आधार पर ही किण्डरगार्टन, मॉण्टेसरी, प्रोजेक्ट आदि आधुनिक शिक्षण–पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। इसे ‘खेल पद्धति द्वारा शिक्षा’ (Education by play way) कहा जाता है; अत: यह स्पष्ट है कि व्यायाम और खेलकूद के बिना शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करना असम्भव है।
उपसंहार–
व्यायाम और खेल–कूद से शरीर में शक्ति का संचार होता है, जीवन में ताजगी और स्फूर्ति मिलती है। आधुनिक शिक्षा–जगत् में खेल के महत्त्व को स्वीकार कर लिया गया है। छोटे–छोटे बच्चों के स्कूलों में भी खेल–कूद की समुचित व्यवस्था की गई है। हमारी सरकार ने इस कार्य के लिए अलग से ‘खेल मन्त्रालय भी बनाया है।
फिर भी जैसी खेल–कूद और व्यायाम की व्यवस्था माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में होनी चाहिए, वैसी अभी नहीं है। इस स्थिति में परिवर्तन आवश्यक है। यदि भविष्य में सुयोग्य नागरिक एवं सर्वांगीण विकासयुक्त शिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना है तो शिक्षा में खेल–कूद की उपेक्षा न करके उसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना होगा।