Saturday, April 18, 2020

पर्वत प्रदेश में पावस- सुमित्रानंदन पंत A Hindi lesson by- Chander Uday Singh


पर्वत प्रदेश में पावस- सुमित्रानंदन पंत

A Hindi lesson by- Chander Uday Singh


कवि परिचय

सुमित्रानंदन पंत

इनका जन्म सन 20 मई 1900 को उत्तराखंड के कौसानी-अल्मोड़ा में हुआ था। इन्होनें बचपन से ही कविता लिखना आरम्भ कर दिया था। सात साल की उम्र में इन्हें स्कूल में काव्य-पाठ के लिए पुरस्कृत किया गया। 1915 में स्थायी रूप से साहित्य सृजन किया और छायावाद के प्रमुख स्तम्भ के रूप में जाने गए। इनकी प्रारम्भिक कविताओं में प्रकृति प्रेम और रहस्यवाद झलकता है। इसके बाद वे मार्क्स और महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित हुए।
प्रमुख कार्य
कविता संग्रह - कला और बूढ़ा चाँद, चिदंबरा
कृतियाँ - वीणा, पल्लव, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णकिरण और लोकायतन।
पुरस्कार - पद्मभूषण, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी पुरस्कार। 



पाठ का सार

कवि ने इस कविता में प्रकृति का ऐसा वर्णन किया है कि लग रहा है कि प्रकृति सजीव हो उठी है। कवि कहता है कि वर्षा ऋतु में प्रकृति का रूप हर पल बदल  रहा है कभी वर्षा होती है तो कभी धूप निकल आती है। पर्वतों पर उगे हजारों फूल ऐसे लग रहे है जैसे पर्वतों की आँखे हो और वो इन आँखों के सहारे अपने आपको अपने चरणों ने फैले दर्पण रूपी तालाब में देख रहे हों। पर्वतो से गिरते हुए झरने कल कल की मधुर आवाज कर रहे हैं जो नस नस को प्रसन्नता से भर रहे हैं। पर्वतों पर उगे हुए पेड़ शांत आकाश को ऐसे देख रहे हैं जैसे वो उसे छूना चाह रहे हों।  बारिश के बाद मौसम ऐसा हो गया है कि घनी धुंध के कारण लग रहा है मानो पेड़ कही उड़ गए हों अर्थात गायब हो गए हों,चारों ओर धुँआ होने के कारण लग रहा है कि तालाब में आग लग गई है। ऐसा लग रहा है कि ऐसे मौसम में इंद्र भी अपना बादल रूपी विमान ले कर इधर उधर जादू का खेल दिखता हुआ घूम रहा है




 कविता का भावार्थ



पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कवितापर्वत प्रदेश में पावसकी प्रस्तुत पंक्तियों में कवि सुमित्रानंदन पंत जी ने वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए, पर्वतों के ऊपर प्रकृति में पल-पल हो रहे बदलाव के बारे में बताया है। उनके अनुसार, वर्षा ऋतु में पहाड़ों के ऊपर कभी धूप खिल जाती है, तो कभी उन्हीं पहाड़ों को घने काले बादल घेर लेते हैं, अर्थात उन्हें छुपा लेते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि ये सब होने में क्षण भर का समय भी नहीं लगता।

मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,

-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!
पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कवितापर्वत प्रदेश में पावसकी प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने पर्वत को एक करघनी (कमर में पहने जाने वाले गहना) के रुप में बताया है।  पर्वत पर खिले हुए हज़ारों फूल पर्वत के नेत्र की तरह लग रहे हैं। ठीक पर्वत के नीचे फैला तालाब किसी दर्पण का काम कर रहा है, जिसमें पर्वत अपनी पुष्प रूपी आँखों से अपना विशाल रूप निहार रहा है।



गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों सी सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कवितापर्वत प्रदेश में पावसकी इन पंक्तियों में कवि ने किसी पर्वत से गिरते झरने की सुंदरता का बखान किया है। झरना उसमें उठने वाले झाग के कारण मोतियों की लड़ी की भाँति लग रहा है। उसके गिरने से पैदा होती कल-कल की गूँज मानो ऐसी है, जैसे झरना पर्वत का गुणगान कर रहा हो। गिरते हुए झरने की ध्वनि को सुनकर लेखक की नस-नस में मानो ऊर्जा का संचार होने लगता है।


गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षायों से तरूवर
है झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।
पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कवितापर्वत प्रदेश में पावसकी प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ऊँचे पर्वत के ऊपर उगे हुए वृक्षों का वर्णन कर रहा है। जिन्हें देखकर कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह पेड़ पर्वत के हृदय से उगे हैं और सदैव ऊपर उठने की कामना से एकटक ऊपर आकाश की ओर ही देख रहे हैं। उनकी ऊपर उठने की इच्छा कुछ इस प्रकार प्रतीत हो रही है कि वे अपने इस लक्ष्य को पाकर ही रहेंगे, उन्हें ऊपर उठने से कोई रोक नहीं सकता। साथ ही, कवि को ऐसा भी प्रतीत हो रहा है मानो ये पेड़ किसी गहरी चिंता में डूबे हों।



उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : अचानक बदलते इस मौसम में जब आकाश में बादल छा जाते हैं, तो पर्वत भी ढक जाता है। इसीलिए कवि ने कहा है कि अचानक पर्वत अपने चमकीले पंख फड़फड़ा कर कहीं उड़ गया है। वह अब कहीं नजर नहीं रहा। चारों ओर कुछ दिखाई नहीं दे रहा, सिर्फ झरने के गिरने की आवाज़ सुनाई दे रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो आकाश पृथ्वी पर गिरा हो।



धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल
पर्वत प्रदेश में पावस भावार्थ : सुमित्रानंदन पंत की कवितापर्वत प्रदेश में पावसकी इन पंक्तियों में कवि कह रहे हैं कि घनघोर बारिश हो रही है। इस मूसलाधार बरसात के कारण वातावरण में चारों ओर कोहरा फ़ैल जाता है। जिसकी वजह से शाल के विशाल पेड़ भी दिखाई नहीं देते। इसीलिए कवि ने कहा है कि शाल के पेड़ डरकर धरती में घुस जाते हैं। इस निरंतर उठते कोहरे को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो तालाब में आग लग गई हो। प्रकृति के विभिन्न रूपों को देखकर कवि को ऐसा लग रहा है, जैसे इंद्र बादलों में घूम-घूम कर अपना खेल खेल रहे हों।

 गृह कार्य सभी विद्यार्थियों को कठिन शब्दों के अर्थ लिखकर अपलोड करने के लिए कहा जा रहा है यह आपका घर का काम है आप इसको लिखकर व्हाट्सएप ग्रुप में अपलोड करें


कठिन शब्द     -      अर्थ

पावस ऋतू - वर्षा ऋतू
वेश - रूप
मेघलाकार - करघनी के आकार की पहाड़ की ढाल
अपार - जिसकी कोई सीमा ना हो
सहस्त्र - हजारों
दृग-सुमन - फूल रूपी आँखें
अवलोक - देख रहा
महाकार - विशाल आकार
ताल - तालाब
दर्पण - शीशा
गिरि - पर्वत
मद - मस्ती
उत्तेजित करना - भड़काना
निर्झर - झरना
उर - हृदय
उच्चाकांक्षायों - उँची आकांक्षा
तरुवर - वृक्ष
नीरव - शांत
• अनिमेष - अपलक
अटल - स्थिर
भूधर - पर्वत
वारिद - बादल
रव-शेष - केवल शोर बाकी रह जाना
सभय - डरकर
जलद - बादल रूपी वाहन
विचर-विचर - घूम-घूम कर
इंद्रजाल - इन्द्रधनुष

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