कैकेयी का अनुताप
मैथिलीशरण गुप्त
Class 10th
A hindi lesson by Chander Uday Singh
सम्पूर्ण व्याख्या प्रसंग सहित
“यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को |”
चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी स्वर को |
सबने रानी की ओर अचानक देखा,
बैधव्य-तुषारावृता यथा विधु-लेखा |
बैठी थी अचल तथापि असंख्यतरंगा ,
वह सिंही अब थी हहा ! गौमुखी गंगा —
“हाँ, जनकर भी मैंने न भारत को जाना ,
सब सुन लें,तुमने स्वयं अभी यह माना |
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भईया ,
अपराधिन मैं हूँ तात , तुम्हारी मईया |
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में राम की बात सुनकर माता कैकेयी स्वयं को दोषी सिद्ध करती हुई उनसे अयोध्या लौटने की बात कहती हैं।
व्याख्या - राम की इस बात को सुनकर कि भरत को स्वयं उसकी माता भी न पहचान सकी, कैकेयी कहती हैं कि यदि यह सच है, तो अब तम अपने घर लौट चलो अर्थात् मेरी उस मूर्खता को भूलकर अयोध्या। चलो. जिसके परिणामस्वरूप मैंने तुम्हारे लिए वनवास की माँग की थी।
कैकेयी के मुख से दढ स्वर में कही गई इस बात को सुनकर सब विस्मित रह गए और अचानक उनकी ओर देखने लगे। उस समय विधवा रूप में श्वेत वस्त्र धारण कर वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानो कुहरे ने चाँदनी को ढक लिया हो। स्थिर बैठी होने के पश्चात भी उनके मन में विचारों की अनगिनत तरंगें उठ रही थीं। कभी सिंहनी-सी प्रतीत होने वाली रानी कैकेयी आज दीनता के भावों से भरी थीं। आज वह गंगा के सदृश शान्त, शीतल और पावन थीं।
कैकेयी आगे कहती हैं कि सभी लोग सुन लें- मैं जन्म देने के पश्चात् भी भरत को न पहचान सकी। अभी-अभी राम ने भी इस बात को स्वीकार किया है। वह राम से कहती हैं कि यदि तुम्हारी कही बात सच है तो तुम अयोध्या लौट चलो। अपराधिनी मैं हूँ, भरत नहीं। तुम्हें वन में भेजने का अपराध मैंने किया है। इसके लिए मुझे जो दण्ड चाहो दो, मैं उसे स्वीकार कर लूँगी, परन्तु घर लौट चलो, अन्यथा लोग भरत को दोषी मानेंगे।
काव्य सौन्दर्य भाव पक्ष
(i)प्रस्तत पद्यांश में कैकेयी को अपराध-बोध से ग्रसित दिखाया गया है। राम को घर लौटने का अनुरोध करके वह सदमार्ग की ओर अग्रसर होती दिख रही हैं।
(ii) रस शान्त एवं करुण
दुर्बलता का ही चिन्ह विशेष शपथ है ,
पर ,अबलाजन के लिए कौन सा पथ है ?
यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊं ,
तो पति समान स्वयं पुत्र भी खोऊँ |
ठहरो , मत रोको मुझे,कहूं सो सुन लो ,
पाओ यदि उसमे सार उसे सब चुन लो,
करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊं ?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊँ ?
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि ने कैकेयी के पश्चाताप को अपूर्व ढंग से अभिव्यंजित किया है।
व्याख्या - कैकेयी, भरत की सौगन्ध खाते हुए राम से कहती हैं कि सौगन्ध खाने से व्यक्ति की दुर्बलता प्रकट होती है, परन्तु स्त्रियों के लिए इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं हैं। वह राम को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे राम! मुझे तुम्हारे वनवास के लिए भरत ने नहीं उकसाया था। यदि यह सच नहीं तो मैं पति के समान ही। अपना पुत्र भी खो बैठूं । मुझे यह कहने से कोई न रोके। मैं जो कह रही हैं, सभी सुन लें। यदि मेरे कथनों में कोई यथार्थ बात हो तो उसे ग्रहण कर लें। मुझसे यह न सहा जा सकेगा कि मैं इतना बड़ा पाप करके थोड़ा भी पश्चाताप प्रकट न करूँ और मौन रह जाऊँ।
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थी सनक्षत्र शशि-निशा ओस टपकाती ,
रोती थी नीरव सभा ह्रदय थपकाती |
उल्का सी रानी दिशा दीप्त करती थी ,
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कैकेयी के यह सब कहने के दौरान तारों से भरी चाँदनी रात ओस के रूप में अश्रु-जल बरसा रही थी और नीचे मौन सभा हृदय को थपथपाते हुए रुदन कर रही थी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि कैकेयी के हृदय-परिवर्तन और उनके पश्चाताप को देख सभा में उपस्थित सभी लोगों की संवेदना उनके साथ थी मानो सभासद सहित प्रकृति ने भी उन्हें उनके अपराध के लिए क्षमा कर दिया हो।
रानी कैकेयी, जिसने अपनी अनुचित माँग से पूरे अयोध्या और वहाँ के निवासियों का जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया था, आज पश्चाताप की अग्नि में जलकर चारों ओर सदभाव की किरणें बिखेर रही थीं। उनके इस नए रूप के परिणामतः वहाँ उपस्थित लोगों में एक साथ भय, आश्चर्य और शोक के भाव उमड़ रहे थे।
सबमें भय,विस्मय और खेद भरती थी |
‘क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी ,
मेरा ही मन रह सका न निज विश्वासी |
जल पंजर-गत अरे अधीर , अभागे ,
वे ज्वलित भाव थे स्वयं तुझी में जागे |
पर था केवल क्या ज्वलित भाव ही मन में ?
क्या शेष बचा था कुछ न और इस जन में ?
कुछ मूल्य नहीं वात्सल्य मात्र , क्या तेरा ?
पर आज अन्य सा हुआ वत्स भी मेरा |
थूके , मुझ पर त्रैलोक्य भले ही थूके ,
जो कोई जो कह सके , कहे, क्यों चुके ?
छीने न मातृपद किन्तु भरत का मुझसे ,
हे राम , दुहाई करूँ और क्या तुझसे ?
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कैकेयी, राम को वनवास भेजने के लिए स्वयं को दोषी ठहराते हुए पश्चाताप कर रही है।
व्याख्या - कैकेयी, मन्थरा को निर्दोष बताते हुए कहती हैं कि मन्थरा तो साधारण-सी दासी है। वह भला मेरे मन को कैसे बदल सकती! सच तो। यह है कि स्वयं मेरा मन ही अविश्वासी हो गया था।
अपने मन को अधीर और अभागा मान कैकेयी अपने अन्तर्मन को कहती हैं कि मेरे शरीर में स्थित हे मन! ईर्ष्या-द्वेष से परिपूर्ण वे ज्वलन्त भाव स्वयं तझमें ही जागे थे। तत्पश्चात् वह अगले ही क्षण सभा को सम्बोधित करते हुए प्रश्न पूछती हैं कि क्या, मेरे मन में केवल आग लगाने वाले भाव ही थे? क्या मुझमें और कुछ भी शेष न था? क्या मेरे मन के वात्सल्य भाव अर्थात् पुत्र-स्नेह का कुछ भी मूल्य नहीं? किन्तु हाय आज स्वयं मेरा पुत्र ही मुझसे पराए की तरह व्यवहार करता है। अपने कर्मों पर पछताते हुए कैकेयी आगे कहती हैं कि तीनों लोक अर्थात् धरती, आकाश और पाताल मुझे क्यों न धिक्कारे, मेरे विरुद्ध जिसके मन में जो आए वह क्यों न कहे, किन्तु हे राम! मैं तुमसे दीन स्वर में बस इतनी ही विनती करती हूँ कि मेरा मातृपद अर्थात् भरत को पुत्र कहने का मेरा अधिकार मुझसे न छीना जाए। ।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) प्रस्तुत पद्यांश में कैकेयी ने अपनी उस विवशता को स्पष्ट किया है जब एक माँ अपनी सन्तान के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहती है, बावजूद इसके उसे उस सन्तान से प्यार नहीं मिलता।
(ii) रस करुण
कहते आते थे यही अभी नरदेही ,
‘माता न कुमाता , पुत्र कुपुत्र भले ही |’
अब कहे सभी यह हाय ! विरुद्ध विधाता ,—
‘है पुत्र पुत्र ही , रहे कुमाता माता |’
बस मैंने इसका बाह्य-मात्र ही देखा ,
दृढ ह्रदय न देखा , मृदुल गात्र ही देखा |
परमार्थ न देखा , पूर्ण स्वार्थ ही साधा ,
इस कारण ही तो हाय आज यह बाधा !
युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी —
‘रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी |’
निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा —
‘धिक्कार ! उसे था महा स्वार्थ ने घेरा |’—”
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कैकेयी स्वयं को धिक्कारते हुए भरत के हृदय को न समझ पाने की असमर्थता को व्यक्त कर रही हैं।
व्याख्या - आत्मग्लानि में डूबी हुई कैकेयी कहती हैं कि अभी तक तो मानव जाति में यही कहावत प्रचलित थी कि पुत्र, कुपुत्र भले ही हो जाए, माता कभी कुमाता नहीं होती अर्थात् पुत्र माता के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करने में चाहे कितनी भी लापरवाही क्यों न दिखाए, उनके प्रति कितना भी अपराध क्यों न करे, माता उसे क्षमा करके उसके प्रति अपना उत्तरदायित्व सदा निभाती ही रहती है, किन्तु अब तो सभी लोग यह कहेंगे कि विधाता के बनाए नियमों के विरुद्ध यहाँ पुत्र तो पुत्र ही है, माता ही कुमाता हो गई है अर्थात् संसार मुझ पर बुरी माता होने का आरोप लगाएगा । क्योंकि मैंने पुत्र के हित के विरुद्ध कार्य किया है।
कैकेयी अपने दोष गिनाते हुए आगे कहती हैं, कि मैंने अपने पुत्र (भरत) का केवल बाहरी रूप ही देखा है, उसके दृढ़ हृदय को मैं न समझ सकी। मेरी दृष्टि बस उसके कोमल शरीर तक गई, उसके परमार्थी स्वरूप को मैं अब तक न देख सकी। इन्हीं कारणों से आज मैं इन समस्याओं से घिरी हूँ और मेरा जीवन दुभर हो गया है। अब तो युगों-युगों तक मैं दुष्ट माता के रूप में जानी जाऊँगी। मुझे याद कर लोग कहेंगे कि रघुकुल में एक अभागिन रानी थी, जिसे स्वयं उसके पुत्र ने त्याग दिया था। जन्म-जन्मान्तर तक मेरी आत्मा यह सुनने के लिए विवश होगी कि अयोध्या की रानी कैकेयी को महा स्वार्थ ने घेरकर ऐसा अनुचित कर्म कराया कि उसने धर्म के मार्ग का त्याग कर अधर्म के मार्ग का अनुसरण किया।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
( यहाँ कैकेयी के द्वारा भरत को न पहचान सकने के पश्चाताप का भाव व्यक्त किया गया है, साथ-ही-साथ समाज में होने वाले अपयश से उन्हें अत्यधिक चिन्तित भी दर्शाया गया है।
(ii) रस करुण
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“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई |”
जिस जननी ने है जना भरत सा भाई |”
पागल-सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई —
“सौ बार धन्य वह एक लाल की माई |”
सन्दर्भ पूर्ववत्।
प्रसंग यहाँ कैकेयी द्वारा पश्चाताप व्यक्त करने पर राम सहित उपस्थित सभाजनों ने उन्हें भरत जैसे पुत्र की माता होने पर धन्य कहा है।
व्याख्या - कैकेयी पश्चाताप व्यक्त करते हुए कह रही हैं कि अब तो कैकेयी की इन बातों को सुनकर राम सहित सभासदों ने एक स्वर में कहा कि भरत जैसे महान् पुत्र रत्न को जन्म देने वाली माता सौ-बार धन्य हैं। अतः । यहाँ सभी लोगों द्वारा एक मत से कैकेयी को निर्दोष कहा जा रहा है। – सभासदों की बात को सुनकर कैकेयी ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उनकी बात दोहराई और कहा कि हाँ मैं उसी पुत्र की अभागिन माता हूँ, जिसे मैंने खो दिया है वह पुत्र भी अब मेरा नहीं रहा। उसने मुझे माता मानने से इनकार कर दिया है। मैंने हर प्रकार से अपयश ही कमाया है और स्वयं को कलंकित भी कर लिया है।
काव्य सौन्दर्य
भाव पक्ष
(i) प्रस्तुत पद्यांश में एक ओर कैकेयी के द्वारा स्वयं को धिक्कारने तो दूसरी ओर राम सहित सभासदों द्वारा उनका गुणगान करने के भाव दर्शाए गए हैं।
(ii) रस करुण
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